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अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा॒ सोम॑स्य त॒नूर॑सि॒ विष्ण॑वे॒ त्वा॒ऽति॑थेराति॒थ्यम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा श्ये॒नाय॑ त्वा सोम॒भृते॒ विष्ण॑वे त्वा॒ऽग्नये॑ त्वा रायस्पोष॒दे विष्ण॑वे त्वा ॥१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। विष्ण॑वे ॥ त्वा॒ सोम॑स्य। त॒नूः अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। अति॑थेः। आ॒ति॒थ्यम्। अ॒सि॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। श्येनाय॑। त्वा॒। सो॒म॒भृत॒ इति॑ सोम॒ऽभृते॑। विष्ण॑वे। त्वा॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। रा॒य॒स्पो॒ष॒द इति॑ रायस्पोष॒ऽदे। विष्ण॑वे। त्वा॒ ॥१॥

यजुर्वेद » अध्याय:5» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस-किस प्रयोजन के लिये यज्ञ का अनुष्ठान करना योग्य है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे मैं जो हवि (अग्नेः) बिजुली प्रसिद्ध रूप अग्नि के (तनूः) शरीर के समान (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) यज्ञ की सिद्धि के लिये स्वीकार करता हूँ, जो (सोमस्य) जगत् में उत्पन्न हुए पदार्थ-समूह की (तनूः) विस्तारपूर्वक सामग्री (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) वायु की शुद्धि के लिये उपयोग करता हूँ, जो (अतिथेः) संन्यासी आदि का (आतिथ्यम्) अतिथिपन वा उनकी सेवारूप कर्म (असि) है (त्वा) उसको (विष्णवे) विज्ञान यज्ञ की प्राप्ति के लिये ग्रहण करता हूँ, जो (श्येनाय) श्येनपक्षी के समान शीघ्र जाने के लिये (असि) है (त्वा) उस द्रव्य को अग्नि आदि में छोड़ता हूँ, जो (विष्णवे) सब विद्या कर्मयुक्त (सोमभृते) सोमों को धारण करनेवाले यजमान के लिय सुख (असि) है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूँ। जो (अग्नये) अग्नि बढ़ाने के लिये काष्ठ आदि हैं (त्वा) उसको स्वीकार करता हूँ। जो (रायस्पोषदे) धन की पुष्टि देने वा (विष्णवे) उत्तम गुण, कर्म, विद्या की व्याप्ति के लिये समर्थ पदार्थ है (त्वा) उसको ग्रहण करता हूँ, वैसे इन सब का सेवन तुम भी किया करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि पूर्वोक्त फल की प्राप्ति के लिये तीन प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करें ॥१॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ किमर्थो यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नेः) विद्युत्प्रसिद्धरूपस्य (तनूः) शरीरवत् (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः। (विष्णवे) यज्ञानुष्ठानाय (त्वा) तद्धविः। (सोमस्य) जगत्युत्पन्नस्य पदार्थसमूहस्य रसस्य वा (तनूः) विस्तारकम् (असि) भवति (विष्णवे) व्यापनशीलस्य वायोश्च शुद्धये (त्वा) तां सामग्रीम् (अतिथेः) अविद्यमानातिथेर्विदुषः (आतिथ्यम्) यदतिथेर्भावः सत्काराख्यं कर्म वा (असि) वर्त्तते तत् (विष्णवे) व्याप्तिशीलाय विज्ञानप्राप्तिलक्षणाय वा यज्ञाय (त्वा) तद्यज्ञसाधनम् (श्येनाय) श्येनवदितस्ततः सद्यो गमनाय (त्वा) तद्धवनं कर्म (सोमभृते) यः सोमान् बिभर्त्ति तस्मै यजमानाय (विष्णवे) सर्वविद्याकर्मव्यापनस्वभावाय (त्वा) तदुत्तमं सुखम् (अग्नये) पावकवर्द्धनाय (त्वा) तदिन्धनादिकं वस्तु (रायस्पोषदे) यो रायो विद्या धनसमूहस्य पोषं पुष्टिं ददाति तस्मै (विष्णवे) सर्वसद्गुणविद्याकर्मव्याप्तये (त्वा) तामेतां क्रियाम्। अयं मन्त्रः (शत०३। ४। १। ९-१४) व्याख्यातः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यथाऽहं यद्धविरग्नेस्तनूरसि भवति त्वा तद्विष्णवे स्वीकरोमि। या सोमस्य सामग्र्यसि भवति, त्वा तां विष्णव उपयुञ्जामि। यदतिथेरातिथ्यमसि वर्त्तते त्वा तद्विष्णवे परिगृह्णामि, यछ्येनवच्छीघ्रगमनाय प्रवर्त्तते त्वा तदग्न्यादिषु प्रक्षिपामि। यत्कर्म विष्णवे सोमभृते वर्त्तते त्वा तदाददे, यदग्नये वरीवृत्यते त्वा तत्स्वीकरोमि। यद् रायस्पोषदे विष्णवे समर्थकमस्ति त्वा तत् संगृह्णामि, तथैवैतत् सर्वं यूयमपि सेवध्वम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरेतत्फलप्राप्तये त्रिविधो यज्ञो नित्यमनुष्ठेय इति ॥१॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वोक्त फळ प्राप्त व्हावे, यासाठी तीन प्रकारच्या यज्ञांचे अनुष्ठान करावे.